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अ꣣भ्रातृव्यो꣢ अ꣣ना꣡ त्वमना꣢꣯पिरिन्द्र ज꣣नु꣡षा꣢ स꣣ना꣡द꣢सि । यु꣣धे꣡दा꣢पि꣣त्व꣡मि꣢च्छसे ॥१३८९॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

अभ्रातृव्यो अना त्वमनापिरिन्द्र जनुषा सनादसि । युधेदापित्वमिच्छसे ॥१३८९॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ꣣भ्रातृव्यः꣢ । अ꣣ । भ्रातृव्यः꣢ । अ꣣ना꣢ । त्वम् । अ꣡ना꣢꣯पिः । अन् । आ꣣पिः । इन्द्र । जनु꣡षा꣢ । स꣣ना꣢त् । अ꣣सि । युधा꣢ । इत् । आ꣣पित्व꣢म् । इ꣣च्छसे ॥१३८९॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1389 | (कौथोम) 6 » 2 » 4 » 1 | (रानायाणीय) 12 » 2 » 3 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में ३९९ क्रमाङ्क पर परमात्मा के विषय में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ जीवात्मा का विषय वर्णित करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे जीवात्मन् ! (सनात्) सदा (जनुषा) शरीरधारणरूप जन्म से तू (अभ्रातृव्यः) न शत्रुओंवाला, (अना) न नेतावाला और (अनापिः) न किसी का बन्धु (असि) है, (युधा इत्) युद्ध से ही (आपित्वम्) किसी को बन्धु वा किसी को शत्रु (इच्छसे) मानने लगता है ॥१॥

भावार्थभाषाः -

जब शिशु माता के गर्भ से जन्म लेता है, तब न उसका कोई शत्रु, न नेता, न ही बन्धु होता है। बड़ा होकर सांसारिक वासनाओं से वासित वह युद्ध आदि से किसी को शत्रु, किसी को नेता और किसी को बन्धु बना लेता है। युद्ध, विद्वेष आदि छोड़कर उसे सबके साथ मित्रता करके आपस में शान्ति के साथ रहना चाहिए ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ३९९ क्रमाङ्के परमात्मविषये व्याख्याता। अत्र जीवात्मविषयो वर्ण्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (इन्द्र) जीवात्मन् ! त्वम् (सनात्) सदा (जनुषा) जन्मना (अभ्रातृव्यः) अशत्रुः, (अना) अनेतृकः, (अनापिः) अबन्धुश्च (असि) वर्तसे। (युधा इत्) युद्धेनैव (आपित्वम्) बन्धुत्वं शत्रुत्वं वा (इच्छसे) अभिलषसि ॥१॥

भावार्थभाषाः -

यदा शिशुर्मातुर्गर्भादुत्पद्यते तदा न तस्य कोऽपि शत्रुर्न मित्रं न नेता नापि च बन्धुर्भवति। वृद्धिं गतः सन् सांसारिकवासनाभिर्वासितः स युद्धादिना कमपि शत्रुं कमपि नेतारं कमपि च बन्धुं करोति। युद्धविद्वेषादिकं परित्यज्य तेन सर्वैः सह मैत्रीं कृत्वा परस्परं शान्त्या वर्तनीयम् ॥१॥